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आ नो॑ नि॒युद्भि॑: श॒तिनी॑भिरध्व॒रं स॑ह॒स्रिणी॑भि॒रुप॑ याहि वी॒तये॒ वायो॑ ह॒व्यानि॑ वी॒तये॑। तवा॒यं भा॒ग ऋ॒त्विय॒: सर॑श्मि॒: सूर्ये॒ सचा॑। अ॒ध्व॒र्युभि॒र्भर॑माणा अयंसत॒ वायो॑ शु॒क्रा अ॑यंसत ॥

अंग्रेज़ी लिप्यंतरण

ā no niyudbhiḥ śatinībhir adhvaraṁ sahasriṇībhir upa yāhi vītaye vāyo havyāni vītaye | tavāyam bhāga ṛtviyaḥ saraśmiḥ sūrye sacā | adhvaryubhir bharamāṇā ayaṁsata vāyo śukrā ayaṁsata ||

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

आ। नः॒। नि॒युत्ऽभिः॑। श॒तिनी॑भिः। अ॒ध्व॒रम्। स॒ह॒स्रिणी॑भिः। उप॑। या॒हि॒। वी॒तये॑। वायो॒ इति॑। ह॒व्यानि॑। वी॒तये॑। तव॑। अ॒यम्। भा॒गः। ऋ॒त्वियः॑। सऽर॑श्मिः। सूर्ये॑। सचा॑। अ॒ध्व॒र्युऽभिः॑। भर॑माणाः। अ॒यं॒स॒त॒। वायो॒ इति॑। शु॒क्राः। अ॒यं॒स॒त॒ ॥ १.१३५.३

ऋग्वेद » मण्डल:1» सूक्त:135» मन्त्र:3 | अष्टक:2» अध्याय:1» वर्ग:24» मन्त्र:3 | मण्डल:1» अनुवाक:20» मन्त्र:3


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स्वामी दयानन्द सरस्वती

फिर राजा को प्रजाजनों से क्या लेना चाहिये, इस विषय को अगले मन्त्र में कहा है ।

पदार्थान्वयभाषाः - हे (वायो) विद्वान् ! (तव) आपके जो (अध्वर्य्युभिः) अपने को यज्ञ की इच्छा करनेवालों ने (भरमाणाः) धारण किये मनुष्य (अयंसत) निवृत्त होवें सुख जैसे हो वैसे (अयंसत) निवृत्त हों अर्थात् सांसारिक सुख को छोड़े, जिन आपका (सूर्ये) सूर्य के बीच (सचा) अच्छे प्रकार संयोग किये हुई (शुक्राः) शुद्ध किरणों के समान (सरश्मिः) प्रकाशों के साथ वर्त्तमान (ऋत्वियः) जिसका ऋतु समय प्राप्त हुआ वह (अयम्) यह (भागः) भाग है सो आप (वीतये) व्याप्त होने के लिये (हव्यानि) ग्रहण करने योग्य पदार्थों को (उपयाहि) समीप पहुँचे प्राप्त हों। हे (वायो) प्रशंसित बलयुक्त जो (शतिनीभिः) प्रशंसित सैकड़ों अङ्गों से युक्त सेनाओं के साथ वा (सहस्रिणीभिः) जिनमें बहुत हजार शूरवीरों के समूह उन सेनाओं के साथ वा (नियुद्भिः) पवन के गुण के समान घोड़ों से (वीतये) कामना के लिये (नः) हम लोगों के (अध्वरम्) राज्यपालनरूप यज्ञ को प्राप्त होते, उनको आप (आ) आकर प्राप्त होओ ॥ ३ ॥
भावार्थभाषाः - इस मन्त्र में वाचकलुप्तोपमालङ्कार है। राजपुरुषों को चाहिये कि शत्रुओं के बल से चौगुना वा अधिक बल कर दुष्ट शत्रुओं के साथ युद्ध करें और वे प्रतिवर्ष प्रजाजनों से जितना कर लेना योग्य हो उतना ही लेवें तथा सदैव धर्मात्मा विद्वानों की सेवा करें ॥ ३ ॥
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स्वामी दयानन्द सरस्वती

पुना राज्ञा प्रजाभ्यः किं ग्राह्यमित्याह ।

अन्वय:

हे वायो तव येऽध्वर्य्युभिर्भरमाणा जना अयंसत ते सुखमयंसत यस्य तव सूर्ये सचा शुक्राः किरणा इव सरश्मिर्ऋत्विजोऽयं भागोऽस्ति स त्वं वीतये हव्यान्युपयाहि हे वायो ये शतिनीभिस्सहस्रिणीभिर्नियुद्भिर्वीतये नोऽध्वरमुपयान्ति ताँस्त्वमुपायाहि ॥ ३ ॥

पदार्थान्वयभाषाः - (आ) (नः) अस्माकम् (नियुद्भिः) वायुगुणवद्वर्त्तमानैरश्वैः (शतिनीभिः) प्रशस्तासंख्यातसेनाङ्गयुक्ताभिश्चमूभिः (अध्वरम्) राज्यपालनाख्यं यज्ञम् (सहस्रिणीभिः) बहूनि सहस्राणि शूरवीरसंघा यासु ताभिः (उप) (याहि) (वीतये) कामनायै (वायो) विद्वन् (हव्यानि) आदातुमर्हाणि (वीतये) व्याप्तये (तव) (अयम्) (भागः) (ऋत्वियः) ऋतुः प्राप्तोऽस्य स ऋत्वियः (सरश्मिः) रश्मिभिः प्रकाशैः सह वर्त्तमानः (सूर्ये) (सचा) समवेताः (अध्वर्य्युभिः) य आत्मानमध्वरमिच्छन्ति तैः (भरमाणाः) धरमाणाः (अयंसत) उपयच्छेयुः (वायो) प्रशस्तबलयुक्त (शुक्राः) शुद्धाः (अयंसत) ॥ ३ ॥
भावार्थभाषाः - अत्र वाचकलुप्तोपमालङ्कारः। राजपुरुषैः शत्रोर्बलाच्चतुर्गुणं वाऽधिकं बलं कृत्वाऽधार्मिकैः शत्रुभिस्सह योद्धव्यम्। ते प्रतिवर्षं प्रजाभ्यो गृहीतव्यो यावान्करो भवेत् तावन्तमेव गृह्णीयुः सदैव धार्मिकान् विदुष उपसेवेरन् ॥ ३ ॥
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माता सविता जोशी

(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)
भावार्थभाषाः - या मंत्रात वाचकलुप्तोपमालंकार आहे. राजपुरुषांनी शत्रूच्या बलापेक्षा चौपट किंवा अधिक बलाने दुष्ट शत्रूंबरोबर युद्ध करावे व त्यांनी प्रत्येक वर्षी प्रजेकडून जेवढा कर घेणे योग्य आहे तितका घ्यावा. तसेच सदैव धार्मिक विद्वानांची सेवा करावी. ॥ ३ ॥